लॉस्ट स्प्रिंग पाठ सारांश | Lost Spring Summary in Hindi

NCERT Based Flamingo Testbook of Class XII Students for English Course. Our post Provides you  Explanation of Chapter 2  Lost Spring  Summary in Hindi Launguage because its easy to understand Full Chapter and it was written by Anees Jung. We also provide pdf file. In This Article, We Provide A Detailed Summary Of Lost Spring.

Book:Flamingo
Class:12th
Chapter :2
Tittle:Lost Spring
Writter:Anees Jung

NCERT Flamingo Class 12 Chapter 2 English Summary Of Lost Spring In Hindi

1. Paragraph:- “कभी-कभी मुझे कूड़े में मुझे एक रुपया मिल जाता है।””तुम यह क्यों करते हो?” मैं साहेब से पूछती हूँ जो मुझे हर सुबह मेरे पड़ोसी के कूड़ा फेंकने के स्थान पर धन माँगते या ढूँढ़ते हुए मिलता है। साहेब ने अपना घर बहुत पहले छोड़ दिया। ढाका के हरे-भरे खेतों में स्थित अपने घर की उसे दूर दूर तक कोई स्मृति नहीं है। उसकी माँ उसे बताती है कि बड़े-बड़े तूफान आते थे और उनके खेतों और घरों को बहा ले जाते थे। इसी कारण उन्होंने उस शहर को (ढाका को) छोड़ दिया और धन की तलाश में इस बड़े शहर में आ गए जहाँ वह अब रहता है। “मेरे पास करने को इसके अलावा और कुछ है, “निगाह बचाते हुए वह बुदबुदाता है। स्कूल जाया करो” मैंने बड़ी चतुराई के साथ कहा और तुरंत ही यह महसूस किया कि मेरी सलाह कितनी खोखली लगी होगी।

2. Paragraph:- ” “मेरे पड़ोस में कोई स्कूल नहीं है। जब कोई स्कूल बनायेंगे तब जाऊँगा।” “यदि मैं स्कूल शुरू करूं तो क्या तुम आओगे?” मैं थोड़े मजाक भरे अंदाज में पूछती हूँ। “हाँ,” वह खुलकर मुस्कुराते हुए कहता है। मैं कुछ ही दिन बाद देखती हूँ कि वह मेरे पास दौड़कर आता है, “क्या आपका स्कूल तैयार हो गया है?” जो मैं वास्तव में पूरा करना ही नहीं चाहती थी, ऐसा वायदा करने के कारण ग्लानि से भरी मैं कहती हूँ, “स्कूल बनाने में काफी समय लगता है। “किन्तु मेरे जैसे वायदे उसके फीके संसार के हर कोने में भरे पड़े हैं। उसे महीनों जानने के बाद, मैं उससे नाम पूछती हूँ। वह घोषणा करता है ‘साहेब-ए-आलम।’ वह नहीं जानता कि इसका (उसके नाम का) का क्या अर्थ है। अगर उसे इसका अर्थ संसार का मालिक-पता लग जाये तो उसे इस नाम पर विश्वास करना मुश्किल हो जाये। अपने नाम के अर्थ से अनभिज्ञ वह अपने मित्रों के साथ गलियों में घूमता रहता है जो नंगे पैरों वाले लड़कों की ऐसी फौज है जो सुबह के पक्षियों की भाँति दिखाई पड़ते हैं और दोपहर में गायब हो जाते हैं। महीनों से मिलते रहने के कारण मैं उनमें से प्रत्येक को पहचानने लगी हूँ।

मैं उनमें से एक से पूछती हूँ, “तुमने चप्पलें क्यों नहीं पहन रखी है?” वह सीधा-सा उत्तर देता है, “मेरी माँ ने उन्हें ‘ताक या टॉड (अटारी) से नीचे नहीं उतारा।

3. Paragraph:– दूसरा जिसने बेमेल जूते पहन रखे हैं कहता है, “वह उतार भी दे तो वह उन्हें फेंक देगा।” जब मैं इस (बेमेल जूतों) टिप्पणी करती हूँ तो वह अपने पैरों को इधर-उधर घसीटता है और कुछ नहीं कहता है। एक तीसरा लड़का जिसके पास वन में कभी जूतें नहीं रहे कहता है “मुझे जूते चाहिए।” देश-भर में घूमते हुए मैंने शहरों में व गाँव की सड़कों पर बच्चों को नंगे पैर घूमते हुए देखा है। यह पैसों की कमी के कारण नहीं है वरन् नंगे पैर रहना एक परंपरा है, यह नंगे पैर रहने के औचित्य को सिद्ध करने के लिए एक स्पष्टीकरण है। मैं हैरान हूँ कि क्या सतत् बनी रहने वाली गरीबी की दशा की व्याख्या के लिए यह एक बहाना नहीं है।

4. Paragraph:- मुझे एक कहानी याद आती है जो उडिपि के एक आदमी ने एक बार मुझे सुनायी थी। जब वह लड़का था तब वह स्कूल जाते वक्त एक पुराने मंदिर के पास से गुजरा करता था जहाँ उसके पिता पुजारी थे। वह थोड़ी देर मंदिर पर ठहरता और एक जोड़ी जूते के लिए प्रार्थना करता था। तीस साल पश्चात् मैं उसके कस्बे और मंदिर गयी, जो अब उजाड़ के प्रभाव में डूबा था पिछवाड़े में, जहाँ नया पुजारी रहता था, लाल और सफेद प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं। सलेटी रंग के गणवेश में मोजे और जूते पहने हुए एक छोटा लड़का हाँफता हुआ आया और अपना बस्ता फोल्डिंग पलंग पर पटक दिया। लड़के की ओर देखते हुए, मुझे वह प्रार्थना याद आई जो एक दूसरे लड़के ने उस समय देवी से की थी जब उसे अन्ततः एक जोड़ी जूते मिल गये थे, “मैं इन्हें कभी न खोऊँ।” देवी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। अब पुजारी के पुत्र की तरह छोटे लड़कों ने जूते पहन रखे थे। परन्तु मेरे पड़ोस में कूड़ा-करकट बीनने वालों की तरह के अन्य बहुत से लड़के बिना जूतों के रहते हैं।

5. Paragraph:- नंगे पाँव कूड़ा बीनने वालों से मेरा परिचय मुझे सीमापुरी ले जाता है, एक स्थान जो दिल्ली की सीमा पर है लेकिन लाक्षणिक रूप से या फिर अन्य प्रकार से दिल्ली से मीलों दूर है। यहाँ रहने वाले गैर कानूनी बाशिन्दे हैं जो सन् 1971 में बांग्लादेश से आये थे। साहेब का परिवार उन्हीं में से एक है। सीमापुरी उस समय बीहड़ था। यह अभी भी है परन्तु अब यह खाली नहीं है। टिन और तिरपाल के नालीहीन और जलापूर्तिविहीन कच्चे घरों में दस हजार कूड़ा बीनने वाले रहते हैं। वे तीस वर्ष से भी ज्यादा समय से बिना पहचान के और बिना परमिट के रह रहे हैं किन्तु उनके पास राशन कार्ड है जिससे उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हो जाते हैं और जिनसे वे अनाज खरीद पाते हैं। जीने के लिए पहचान की अपेक्षा मोजन ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है।” अगर दिन के अंत में हम अपने परिवार को भोजन दे सके और बिना पेट दर्द के सो सकें तो, हम उन खेतों की अपेक्षा यहाँ रहना ज्यादा पसंद करेंगे जिन्होंने हमको कोई अनाज नहीं दिया” ऐसी फटी हुई साड़ियाँ पहने महिलाओं का एक समूह कहता है जब मैं उनसे पूछती हूँ कि उन्होंने अपने हरे-भरे खेतों और नदियों के सुन्दर देश को क्यों छोड़ दिया। उन्हें जहाँ भी भोजन मिल जाता है, वहीं वे अपने तम्बू गाड़ लेते हैं जो उनके अस्थाई घर बन जाते हैं। बच्चे इन्हीं में तो बड़े होते हैं और उनके अस्तित्व के साझेदार बनते हैं और सीमापुरी में उत्तरजीविता का अर्थ होता है कूड़ा बीनना। वर्षों की अवधि में इसने एक ललित कला का रूप ले लिया है। कूड़ा उनके लिए सोना या धन संपत्ति है। यह उनकी रोज की रोटी है, उनके सिरों पर छत है भले ही यह एक टपकती हुई छत क्यों न हो किंतु एक बच्चे के लिए यह छत इससे भी कहीं ज्यादा है।

6. Paragraph:- “कभी-कभी मुझे एक रुपया मिल जाता है, यहाँ तक कि दस रुपये का नोट भी कभी-कभी मिल जाता है” साहेब कहता है, उसकी आँखें चमक उठती हैं। जब कूड़े में आपको एक चाँदी का सिक्का मिल सकता है तो आप ढूँढना बन्द नहीं करते क्योंकि ज्यादे पाने की आशा (बनी) रहती है। ऐसा लगता है कि बच्चों के लिए कूड़े का अर्थ उनके माता-पिता के लिए जो अर्थ इसका (कूड़े का) होता है उससे भिन्न होता है। बच्चों के लिए यह आश्चर्य में लिपटी चीज होती है और बड़े-बूढ़े लोगों के लिए (यह कूड़ा) जिन्दा रहने का साधन होता है।

7. Paragraph:- सर्दी की एक सुबह में साहेब को पास के क्लब के दरवाजे के नजदीक खड़े हुए देखती हूँ, जहाँ से वह सफेद वेशभूषा पहने दो युवकों को टेनिस खेलते हुए ध्यानपूर्वक देख रहा है। “मुझे यह खेल पसंद है।” वह गुनगुनाता है, और इस बाड़ के पीछे से खड़ा होकर देखकर ही संतुष्ट है। “जब कोई आसपास नहीं होता है तो मैं अंदर चला जाता हूँ।” वह स्वीकार करता है। “द्वारपाल मुझे झूले पर झूलने देता है।”

8. Paragraph:- साहेब ने भी टेनिस खेलने वाले जूते पहन रखे हैं जो उसकी रंग उड़ी शर्ट और नेकर पर विचित्र लग रहे हैं।” किसी ने ये मुझे दिये थे” स्पष्टीकरण के ढंग से वह कहता है। यह तथ्य कि ये किसी धनी लड़के के त्यागे हुए जूते हैं, जिसने शायद जनमें से एक में छेद होने के कारण इन्हें पहनने से इन्कार कर दिया, उसे परेशान नहीं करता है। ऐसे किसी व्यक्ति के लिए क जो नंगे पैर घूमा हैं, छेद वाले जूते भी सपने के सच होने से कम नहीं हैं। परन्तु वह खेल जिसे वह इतने ध्यानपूर्वक देख रहा है, उसकी पहुंच से बाहर है।

9. Paragraph:- आज सुबह साहेब दूध की दुकान पर जा रहा है। उसके हाथ में स्टील का एक कनस्तर है। “मैं इस सड़क पर आगे एक चाय की दुकान में काम करता हूँ, “दूर इशारा करते हुए वह कहता है।” मुझे 800 रुपये और सभी वक्त का भोजन मिलता है।” “क्या उसे काम पसंद है?” मैं पूछती हूँ। मैं देखती हूँ उसके चेहरे की निश्चिन्तता, बेफ्रिकी या स्वतंत्रता का भाव खो जाता है। स्टील का कनस्तर प्लास्टिक के उस थैले से कहीं ज्यादा भारी लगता है जिसे वह बड़े आराम से अपने कंधे पर ले जाया करता था। थैला उसका था। कनस्तर उस आदमी का है जो चाय की दुकान का मालिक है। साहेब अब अपना स्वयं का मालिक नहीं रहा है

10. Paragraph:- “मैं कार चलाना चाहता हूँ।” मुकेश अपना स्वयं का मालिक बने रहने पर जोर देता है। “मैं मोटर मैकेनिक बनूँगा।” वह घोषणा करता है। “क्या तुम कारों के बारे में कुछ जानते हो?” मैं पूछती हूँ। “मैं कार चलाना सीख लूँगा” सीधा मेरी आँखों में देखते हुए वह कहता है।” उसका सपना उसके अपनी चूड़ियों के लिए मशहूर कस्बे फिरोजाबाद की गलियों की धूल के बीच एक मरीचिका-सा प्रतीत होता है। फिरोजाबाद का हर दूसरा परिवार चूड़ी बनाने में लगा है। यह भारत के काँच की आकृति देने वाले उद्योग का केन्द्र है जहाँ परिवारों ने भट्टियों के आस-पास काम करते हुए काँच तोड़ते हुए लगता है देश की सभी औरतों के लिए चूड़ियाँ बनाते हुए पीढ़ियाँ बिता दी हैं।

11. Paragraph:- मुकेश का परिवार उन्हीं में से एक है। उनमें से कोई नहीं जानता कि उन जैसे बच्चों का बिना हवा प्रकाश की अंधेरी गन्दी कोठरियों में ऊँचे तापमान वाली काँच की भट्टियों पर काम करना गैरकानूनी है; और यह कि यदि कानून लागू कर दिया जाये तो उसे और उन सभी 20,000 बच्चों को गर्म भट्टियों से अलग कर दिया जायेगा जहाँ वे अपने दिन के घण्टों में घोर परिश्रम करते हैं और प्रायः अपनी आँखों की चमक खो बैठते हैं। मुकेश जब मुझे अपने घर ले जाने की पेशकश करता है। तो उसकी आँखें चमक उठती हैं, वह गर्व से कहता है कि उसका घर फिर से बनाया जा रहा है। हम कूड़े से अटी पड़ी बदबूदार गलियों से गुजरते हैं, ऐसे गन्दे घरों के करीब से गुजरते हैं जो टूटी दीवारों, डगमगाते दरवाजों और बिना खिड़कियों के हैं और जिनमें मनुष्यों और जानवरों के परिवार आदिम युग की भाँति साथ-साथ रह रहे हैं। वह ऐसे ही एक घर के दरवाजे पर रूक जाता है लोहे के एक डगमगाते दरवाजे को जोर से लात मारता है और उसे खोल देता है। हम एक अधबनी झोपड़ी में प्रवेश करते हैं। उसकी सूखी घास के छप्पर वाले एक हिस्से में एक चूल्हा है जिस पर एक बड़ा बर्तन रखा है जिसमें पालक की पत्तियाँ खदरबदर करते उबल रही हैं। जमीन पर एल्यूमिनियम की प्लेटों में और कटी हुई सब्जियाँ हैं। एक कमजोर युवती पूरे परिवार के लिए शाम का भोजन बना रही है। धुआँ-भरी आँखों से वह मुस्कुराती है। वह मुकेश के बड़े भाई की पत्नी है। उम्र में उससे ज्यादा बड़ी नहीं है (परन्तु) वह बहू के रूप में उसे आदर मिलने लगा है, घर की बहू के रूप में पहले ही उस पर तीन व्यक्तियों उसका पति, मुकेश और उनके पिता की जिम्मेदारी है। जब बूढ़ा आदमी प्रवेश करता है वह धीरे से टूटी दीवार के पीछे सरक जाती है और अपना घूंघट अपने चेहरे पर सरका लेती है जैसी कि प्रथा है, पुत्र वधुओं को पुरुष बुजुर्गों के सामने अपने चेहरे पर घूँघट जरूर डाल लेना चाहिए। यहाँ, बुजुर्ग एक अत्यन्त निर्धन चूड़ी बनाने वाला है। पहले एक दर्जी के रूप में और फिर एक चूड़ी बनाने वाले के रूप में वर्षों के कठोर परिश्रम के बावजूद भी वह अपने घर का नवीनीकरण करवाने में (और) अपने दो पुत्रों को स्कूल भेजने में असफल रहा है। वह उन्हें वहीं सिखा पाया है जो वह जानता है कला। चूड़ी बनाने की

12. Paragraph:- “”यह इसका कर्म, उसका भाग्य है,” मुकेश की दादी कहती है जिसने चूड़ियों के काँच की पॉलिश की गर्ल से अपने पति को अन्धे होते देखा है।” क्या कभी ईश्वर द्वारा प्रदत्त देने वंश परंपरा तोड़ी जा सकती है?” उसका मतलब है चूड़ी बनाने वाले की जाति में पैदा होकर, उन्होंने चूड़ियों के अलावा और कुछ नहीं देखा है- घर में, आँगन में, हर दूसरे घर में, हर दूसरे आँगन में, फिरोजाबाद की हर गली में। मालाओं के रूप में चूड़ियों के गुच्छे या बन्डल धूप-सी सुनहरी, धान जैसी हरी, चमकीली नीली, बैंगनी, गुलाबी, इन्द्रधनुष के सात रंगों से बनने वाले हर रंग की अस्त-व्यस्त आँगनों में ढेरों में पड़ी रहती है तथा इनको चार पहियों वाली हथगाड़ियों पर लादकर जवान आदमी झोपड़ियों के कस्बे की तंग गलियों में होकर धकेलते हैं और अँधेरी झोंपड़पट्टियों में, टिमटिमाते तेल के दीपकों की लौ की पंक्तियों के आगे लड़के और लड़कियाँ अपने माता-पिता के साथ रंगीन काँच के टुकड़ों को चूड़ियों के वृत्ताकार घेरे पर जोड़ते हुए बैठे रहते हैं। उनकी आँखें बाहर के प्रकाश की अपेक्षा अंधेरे से ज्यादा समायोजित हैं। यही कारण है कि प्रौढ़ होने से पहले ही वे अपनी दृष्टि खो बैठते हैं।

13. Paragraph:- एक छोटी लड़की सविता भद्दी गुलाबी पोशाक पहने एक बूढ़ी औरत के पास बैठकर काँच के टुकड़ों को जोड़ रही है। जब उसके हाथ किसी मशीन के चिमटे की भाँति यन्त्रवत् चलते हैं तो मैं सोचती हूँ कि क्या वह उन चूड़ियों की पवित्रता को जानती हैं जिके नाने में वह मदद कर रही है। ये भारतीय स्त्री के सुहाग का प्रतीक है। यह बात उस दिन अचानक उसकी समझ में आ जायेगी जब उसका सिर लाल घूंघट से ढक दिया जायेगा, उसके हाथों में मेंहदी लगा दी जायेगी और लाल चूड़ियाँ उसकी कलाइयों में पहना दी जायेगी। तब वह एक दुल्हन बन जायेगी। उसकी बगल वाली बूढ़ी औरत की तरह जो बहुत वर्ष पहले एक दुल्हन बन गई थी। आज भी उसकी कलाई में चूड़ियाँ हैं किंतु उसकी आँखों में कोई चमक नहीं है। “एक वक्त सेर भर खाना भी नहीं खाया” वह ऐसी आवाज में कहती है जिसका आनंद समाप्त हो गया है। उसने अपने पूरे जीवन काल में एक बार भी भरपेट भोजन का आनंद नहीं उठाया है—यही मिला है उसे! लहराती दाढ़ी वाला बूढ़ा, उसका पति कहता है, “मैं चूड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं जानता। मैं परिवार के रहने के लिए सिर्फ एक मकान बना पाया हूँ।

14. Paragraph:- उसकी बात सुनकर कोई भी सोचता है कि क्या उसने वह हासिल कर नहीं किया है। उसके सिर पर एक छत तो है। लिया है जो बहुत लोगों ने पूरे जीवन में हासिल चूड़ियाँ बनाने के काम को जारी रखने के अलावा कुछ भी करने के लिए पैसा न होने और खाने के लिए भी पर्याप्त न होने के दुःख को कराहट हर घर में गूंजती है। युवा लोग अपने बुजुर्गों के दर्द को ही प्रतिध्वनित करते हैं। ऐसा लगता है। फिरोजाबाद में समय के साथ कुछ नहीं बदला है। चेतना को शून्य कर देने वाले वर्षों के परिश्रम ने पहल करने और सपने देखने की क्षमता का मार दिया गया है।

15. Paragraph:- “(आप) स्वयं की एक सहकारी समिति क्यों नहीं बनाते हो?” मैं युवकों के एक समूह से पूछती हूँ जो ऐसे मध्यस्थों के कुचक्र में पड़ गये हैं जिन्होंने उनके पिताओं और पूर्वजों को जाल में फँसाया था।” हम संगठित हो भी जाये तो भी किसी गैर कानूनी काम के आरोप में पुलिस द्वारा हम ही न्यायालय में घसीटे जायेंगे, पीटे जायेंगे और जेल में डाल दिये जाएँगे वे कहते हैं। उनमें कोई नेता नहीं है, कोई ऐसा (व्यक्ति) नहीं है जो उन्हें अलग ढंग से देखने में मदद कर सके। उनके पिता उतने ही थके हुए हैं जितने वे (स्वयं) हैं। वे अनवरत कुण्डलीनुमा (चक्र के समान बात) बोलते हैं जो गरीबी से उदासीनता, उदासीनता से लालच और लालच से अन्याय तक पहुंच जाती है।

16. Paragraph:- उनकी बात सुनकर मुझे दो अलग-अलग संसार दिखाई देते हैं- एक तो ऐसे परिवार का जो गरीबी के जाल में फैसा है. और अपनी जन्म की जाति के कलंक से दबा हुआ है दूसरा साहूकारों, विचौलियों, पुलिस वालों कानून को लागू करने वालों, नौकरशाहों और राजनेताओं का कुचक्र है। दोनों ने मिलकर बच्चे के ऊपर ऐसा बोझ लाद दिया है जिसे वह उतार नहीं सकता है। अहसास होने से पहले ही वह इसे उतने ही स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लेता है जितने स्वाभाविक रूप से उसके पिता ने किया था। कुछ हटकर करने का अर्थ होगा चुनौती देना और चुनौती देना उसकी परवरिश का अंग नहीं है। जब मुझे मुकेश में इसकी झलक दिखाई देती तो मुझे खुशी होती है।” मैं मोटर सुधारने वाला मिस्त्री बनना चाहता हूँ, वह दुहराता है। वह किसी गैरिज में जायेगा और सीखेगा। परन्तु गैरिज उसके घर से बहुत दूर है।” मैं पैदल जाऊँगा” वह जोर देकर कहता है।” क्या तुम हवाई जहाज उड़ाने का सपना भी देखते हो?” वह यकायक चुप हो जाता है। “नहीं” वह जमीन की ओर घूरते हुए कहता है उसकी छोटी सी बुदबुदाहट में एक शर्मिन्दगी का भाव है जो अभी तक पश्चाताप में नहीं बदली है। वह उन कारों के सपने देखने से संतुष्ट है जिन्हें वह अपने कस्बे की गलियों में तेजी से दौड़ते हुए देखता है। मुश्किल से ही कभी वायुयान फिरोजाबाद के ऊपर से उड़ते हैं।

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